याद करो वह साँझ सखे,
हम-तुम आलिंगित बैठे थे
गृद्ध-दृष्टिमय लोगों के
अँगुली से इंगित बैठे थे
उनके निर्दय वारों से
सुध-बुध हमने खोई थी,
पावन होते प्रेम के भी
रंजित और निन्दित बैठे थे।
दो जन पर दस जन टूटे
तिस पर पौरुष दिखलाते थे,
बौद्ध-मार्गी हम दोनों,
हाथों से बन्धित बैठे थे।
हम मौन सहे हर घात उनके
न दृष्टि कड़ी उनपर डाली
अपने ही जन के पापों से
पीड़ित और गन्धित बैठे थे।
पूरे-के-पूरे हम बन्दी
जीवन सारा परतन्त्र हुआ
स्वतन्त्र राष्ट्र के पिंजड़े में
पूरे प्रतिबन्धित बैठे
थे।