मैं देता रहूँगा दस्तक तुम्हारी यादों के दरवाज़ों पर,
जब कभी तुम मशगुल हो जाओगे
ज़िन्दगी के कमरे अपनी मशरूफ़ियत के साथ|
तुम झट से उठ बैठोगे ,
बनाओगे मन कि "खोल दूँ दरवाज़ा,
भर लूँ आगोश में तारीख़ों को,"
लेकिन हक़ीक़त की बेड़ियाँ तुम्हें जकड़ लेंगी|
तुम फिर
घुल जाओगे
कमरे की सीलन में|
और मैं,
थोड़ी और देर थपथपा के किवाड़,
लौट जाऊँगा कुछ पलों के लिए|
तुम आँखों में बेबसी का पानी रोके,
फिर मशरूफ़ हो जाओगे,
मेरे वापस आने तक|
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