शब्द समर

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3.1.18

चाँदी बड़ा ही दुखदायी रंग होता है?

निहारते हुए दर्पण;
बरबस ही
पड़ जाती है दृष्टि उसकी अपने सर पर,
फिर होता है प्रारम्भ खेल
स्मरण और कल्पनाओं का|
आँखें बिसूरती पहुँच जाती हैं,
उस समय की गोद में-
जब पीतल और ताँबे के मिश्रित रंग से,
खिला सर;
करता था स्तनपान माँ के आँचल तले|
धीरे-धीरे सुनहरा होता सर,
धूल-मिट्टी-कीचड़ से लथपथ हो,
धूसर हो जाता;
तब माँ सुलझाती और देती झिड़कियाँ,
फिर चूम लेती बड़े प्यार से|

एक दिन न जाने क्या हुआ?
माँ-पिता ने हठ कर
लोहा फिरा दिया,
उस सुनहरे रंग पर|
अपनी सुनहली चमक से
सबको चकित करने वाला वह सर;
इस्पात-स्पर्श से ही
हो गया परिवर्तित, एक गोल चमकीले पत्थर में|
और आँखों ने भी खूब बरसाए थे पानी
सर के रंग बदलने पर|

शैशावान्त के साथ ही,
खूब यात्नोपरान्त 
सर एकदम कोयला हो गया|
दिन-दिन दर्पण में निहारना
और मन-ही-मन
अपने कोक-वर्णी सर को देख गौरवान्वित होना,
बार-बार उसे सजाना-सँवरना
बहुत अच्छा लगता था|
सहकाली मित्रों से प्रतिस्पर्धा में,
अपने कोईली सर की प्रशंसा
में फूले नहीं समाया जाता था|

सहसा एक दिन
उसके सर में
दिखा कुछ चाँदी-सा|
झट से उसने रंगा उसे कोयले से,
पूर्व इसके कि पड़े दृष्टि किसी और की|
सर का चाँदी होना,
नहीं होता सहन,
न मन को, न तन को,
न ही प्रियतम को|
रजत-वर्णी सिर में
करने लगते हैं घर,
ज जाने कितने
अवसाद, कुंठाएँ, व्यथा, टीस, व्याधि, आहविवशता और लाचारी|
जिस कोयले के बल पर-
पहाड़ को भी धकेल पीछे करने का
होता था साहस;
मात्र एक चाँदी ने
उसपर तुषारापात कर दिया|
चाँदी और हिम दोनों ही होते हैं एक वर्णी,
और दोनों का स्वभाव भी समान-
शिथिल कर देना देह को|

जिस कोयले को निहारने के लिए,
मन होता था आकर्षित
बार-बार दर्पण की ओर
अब कितने ही वर्ष हुए,
ताका ही नहीं उधर,
न देखा निज मुख ही,
सर को क्या देखना?
वह तो अब पूरा-का-पूरा ही चाँदी होगा|
कुछ-कुछ स्थानों में
पत्थर भी उग आए हैं
ये वे ही पत्थर हैं,
जो उग आए थे,
एक बार माँ-पिता के बलात लोहा-स्पर्श से;
बस रंग थोड़ा अलग है,
क्योंकि अब-की ये स्वयं ही उगे हैं,
चाँदी के साथ

जैसे-जैसे सर लगा होने खिचड़ी
और बढ़ने लगी संख्या चाँदी की;
स्वभावतः-
होने लगा यत्न, उतना-ही उसे छुपाने का|
अब जितना भी सर को कोयला करो,
वह चाँदी ही होता जाता है|
अतः
त्याग मोह कोयले का,
न चाहते हुए भी
रौप्य वर्ण का अनुराग स्वीकार लिया|

एक समय पश्चात्
लगा होने आभास उसे
कोयला है केन्द्र आकर्षण का,
और चाँदी?
चाँदी-तिरस्कार, घृणा, दुत्कार
कुछ न कर पाने की पीड़ा,
खाट से चिपक जाने की विवशता है|
कहीं बैठे देहली पर,
या पड़े हुए चारपाई पर,
एक टक बाट जोहने की लाचारी है चाँदी|
और मर्मान्तक पुकार है-एक घूँट-जल, और आधी रोटी के लिए|
घर?
कोयलायु में कमाए धन पर होता है निर्भर,
अन्यथा,
घर-रजताश्रम, सड़क, पेड़ की छाँह, खोह-कन्दरा|
आजीविका-अवलम्ब?
आजीविका-
दया-पात्र, भीख, निरा-जल, रिक्तोदर निद्रा,
और अवलम्ब-
एक अत्यन्त क्षीण दण्डिका,
जिससे न भय खाए एक कुत्ता भी|
परिणति?
परिणति-
अत्यन्त ही सरल,
स्वाभाविक या श्वान-मृत्यु|
चाँदी बड़ा ही दुखदायी रंग होता है?
उसकी फुसफुसाहट निकली|

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