गर्जत मेघ, तड़ित चमकावत,
वेग पवन के हिया डरावत|
सघन वृष्टि, मम रूप सजावत,
सखि! साजन तबहूँ नहीं आवत||
दिवस-निशा, चित स्थिर नाहीं,
प्रियवर चित्र बसा मन माहीं|
अधर शुष्क भये, अँसुवन छाहीं,
सखि! साजन मम सुधि बिसराहीं||
श्रावण की हरिता उकसावत,
करि षोडश श्रृंगार नचावत|
बोल पपीहा, हुक बढ़ावत,
सखि! साजन मम बहु तरसावत||
मैं गृहणी, एहि पिंजर माहीं,
पिय मोरे परदेस बसाहीं|
यौवन मोरे बस अब नाहीं,
सखि! साजन बिन जिउ अकुलाहीं||
बढ़ी स्पन्दन, पीर न सोहइ,
सपन पिया के सब मन मोहइ|
कहहु मदन से प्रिया मग जोहइ,
सखि! साजन पर मन बहु छोहइ||
अधरन पर प्रिय अधर डोलावत,
अंग-अंग प्रिय काम बढ़ावत|
बाँधि अंक प्रिय हिय हुलसावत,
सखि! साजन रति नित्य जगावत||