शब्द समर

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23.3.15

अलौकिक प्रेम

कल
मिली मुझे
एक सुनहरे केशों,
उत्ताल तरंगी नयनों वाली,
हिमरंगी, बासंती वस्त्रों से सजी हुई
एक अद्भुत कन्या|
 
देखते ही
विस्मृत नेत्रों से
हो गया प्रेम प्राकट्य मेरा|
हृदय को सहना पड़ा
तिरस्कार उसका
उसी क्षण
उसके असहज नेत्रों
और कम्पित
सितारी स्वरों से|

मैंने पुनः की चेष्टा
स्थापित करने को
अपनी प्रेमिच्छा
"मैं नहीं कह सकता यह
न होगा कोई श्रेष्ठ मुझसे
इस संसार में
किन्तु
इतना अवश्य
कह सकता हूँ
कि
हूँ श्रेष्ठतर मैं भी कईयों से|"

इतना सुनते ही
उसके हाथ हुए अग्रसर
पिपासी
अधर
मुड़े थे मेरी ओर,
और होने ही को था
आलिंगित उससे
तभी
बार-बार गूँजने लगा एक स्वर,
उठो कविराज!
क्या इतनी भोर
शैय्या पर ही काव्यपाठ करोगे?
और अलौकिक संसार से
लौकिकता में आ गया मैं|

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