चित्र-साभार, गूगल |
भर जाता हूँ मैं लबालब
अपनी क्षमता के अनुसार
या उससे भी अधिक कभी-कभी
किन्तु गड़ाए हुए
अपनी पैनी नज़र
चारों ओर से कई सूर्य
देखते ही जल समूह मेरे भीतर
फेक देते हैं तपती किरणें
मेरे ऊपर अपनी-अपनी आवश्यकताओं की
और
सोख लेते हैं मुझे पूरी ताक़त से|
नहीं बचाते एक बूँद भी मुझमें
कि
अपनी या किसी भी ज़रूरतमंद की
मैं बुझा सकूँ प्यास|
बस पूरे साल पड़ा रहता हूँ
अपने ही भीतर दरारें लिए
जिसमें कीड़े भी नहीं पनपते|
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें