शब्द समर

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15.10.13

अन्तः-मन

एक रात मैं स्वयं से बात कर रहा था, बहुत सारी बातें हुईं, उनमें जो मुझे सार्थक लगीं वह मैं अपने पाठकों तक प्रेषित कर रहा हूँ.

मन-मैं दुनिया में हूँ, यही क्या कम है,
           लेकिन क्यों हूँ, इसका भ्रम है?
अन्तः-तुम दुनिया में हो, यही क्या कम है,
         तुम हो क्योंकि साथ तुम्हारे श्रम है.
मन- उद्देश्य बड़ा या जीवन,
          भटकूँ कब तक मैं वन-वन?
अन्तः ध्येय ही तो जीवन का मूल है,
            लक्ष्यहीन साँस चुभती जैसे शूल है.
मन - है कौन दिशा जिस ओर चलूँ मैं,
            जीवन की सार्थकता पर पलूँ मैं?
अन्तः-तुम्हारी अभिरुचि जहाँ पुकारे,
          दौड़े जाओ उसके द्वारे.
मन- घिसटने की है उम्र कहाँ तक,
            थकने लगा हूँ पहुँच यहाँ तक?
अन्तः-संतोष न होगा ह्रदय जब तक,
          भागते फिरोगे जीवन में तब तक.
मन- तो क्या मैं संतुष्टि को वरण करूं,
           जीवन का विस्तरण करूं?
अन्तः-हैं मार्ग तुम्हारे पास सभी,
         बस इनको समझा करो कभी.
मन-तो क्या मारूं मैं भावनाओं को,
          कुचल दूं उच्चाकांक्षाओं को?
अन्तः-है क्षमता तो कर डालो,
         पर पहले समझो और भालो.
मन- क्यों जालों में उलझाते हो,
         स्पष्ट नहीं बतलाते हो?
अन्तःजीवन ही एक पहेली है,
         समझो इसको तो सहेली है.
मन-अब क्या मैं तुमसे बात करूं,
        अपना समय बरबाद करूं?
अन्तः-बस यही मुझे समझाना था,
        आगे तुम्हें बढ़ाना था.
        न लो किसी से तुम सलाह,
       बस पकड़ लो जीवन की राह.
       पुष्प न मिले तो शूल ही सही,
       जीवन में एक भूल ही सही.
       हर भूल में एक शिक्षा होगी,
      और कठिन परीक्षा होगी.
      पर मार्ग तुम्हारा अपन होगा,
      नहीं किसी से दबना होगा.

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