आज पिया से लड़ बैठी मैं, 
वे रूठ कहीं परदेस निकल गये,
 दिन भर से मैं अश्रु बहाऊँ, 
 विरह के मारे जिया विकल भये.
 
 रूठे हैं, तो रूठे रहें वे,  
 क्या रोज़ मनाने मैं ही जाऊँ? 
 जाऊँ तो झिड़की सुनूँ,
 और आँखों में ज्वाला ही पाऊँ.
 अब जाऊँ भी किस डगर चलूँ मैं, 
 जाने वे किस देश निकल गये. 
दिन भर से मैं अश्रु बहाऊँ,
विरह के मारे जिया विकल भये.
 मन मेरा भी करता है,
 मैं रूठूँ कभी और वे मनाएँ,
 मैं हठ कर घर से निकल पडूँ, 
वे प्यार से हाथ पकड़ ले आएँ.
 उनके आलिंगन के प्यासे,
 अधरों के रस तड़प के रह गये.
दिन भर से मैं अश्रु बहाऊँ,
विरह के मारे जिया विकल भये.
 
 निकल गये तो निकल भी जाएँ,
 अब मैं न मनाने जाऊँगी,
 पहला बोल न बोलूँगी, 
 ये अपना प्रण तो निभाऊँगी.
 प्रणय के इस माला में,
 प्रेम के मोती अगल-बगल भये.
दिन भर से मैं अश्रु बहाऊँ,
विरह के मारे जिया विकल भये.
 
 बिन चकोर को देखे तो,
 चाँदनी जैसे बनी अमावस,
 स्पन्दन में भय गूँजता,
 कुछ कर ना बैठें आज क्रोध वश.
 प्रेम भरे इस गुस्से में,
 मेरे मन के भाव विकल भये. 
दिन भर से मैं अश्रु बहाऊँ,
विरह के मारे जिया विकल भये.
 
 ए री सखी! जा तू उनसे कह,
 व्यथित नेत्र के अविरल धार,
 उनके एक बोल पर ही, 
 निछावर करूँ सारा अभिसार. 
 विरह नयन ऐसे बरसे हैं, 
 भीग कपोल आज काजल भये.
दिन भर से मैं अश्रु बहाऊँ,
विरह के मारे जिया विकल भये.