जो मस्तिष्क की ऊँचाई से बहकर
कपोलों पर गिरकर बिखर जाते हैं।
जैसे बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदें
पहाड़ का सीना फाड़,
बहने लगती हैं,
उसी प्रकार,
मन की अथाह व्यथा,
मानव हृदय को चीर,
धारा बन उमड़ पड़ती है,
और झरने लगती है नेत्रों के द्वार से
अविरल, निरन्तर, लगातार|
पर मौसम निश्चित नहीं होते आँसुओं के,
झरने की तरह|
होते ही दैहिक, दैविक, या भौतिक पीड़ा व्यक्ति को,
फूट पड़ते हैं,
आँखों के कोरों से,
किसी भी क्षण, दिन, महीने या ऋतुओं में|
झरनों का बहना,
या
आँसुओं का झरना
धरती और मनुष्य की प्राकृतिक व स्वाभाविक प्रक्रिया है,
जिसे न धरती मार सकती है,
न मानव रोक सकता है|
यदि मानव थामने का करता है,
यत्न बलपूर्वक,
वह स्वयं टूटकर छितरा जाता है
आजीवन अपने जीवन में|