शब्द समर

विशेषाधिकार

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23.1.11

असीम की आकांक्षा

जी करता है, समेट लूं
अनंत सागर को अपने आलिंगन में,
किन्तु मेरी बाहें नहीं हैं उतनी बड़ी.
जी करता है, पी लूं
सारा पानी बरसते हुए बादलों का,
किन्तु नहीं फैलता मेरा मुंह समाहित करने को उन्हें.
जी करता है, नाप लूं
पूरी धरती को एक पग में,
किन्तु वामन जैसे नहीं हैं मेरे पाँव.
मैं अनंत ब्रह्माण्ड में
करोड़ों के बीच बिखरा हुआ एक
जीव हूँ.

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