शब्द समर

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11.2.18

भरा हुआ रिक्त

चित्र-साभार गूगल 
रिक्त प्रभात में टूटी तन्द्रा|
यह रिक्त भी रिक्त ही रहा,
जैसा कि रिक्त होता है|

वैसे देखी हैं कई और भी रिक्तियाँ मैंने
जैसे-
वायुहीन पिचकी गेंद, 
बच्चों के विद्यालयों में,
वृक्षहीन उजाड़ वन,
रंगहीन खण्डहरी दीवारें,
जनहीन अन्धकारमय कमरा,
निःसन्तान गोद माता की,
जलहीन नदियाँ व कूप,
रेखाहीन हथेली और मस्तक|

बस ऐसे ही
यह प्रभात भी लगा पूर्ण रिक्त ही,
जिसमें न थी आशाएँ,
और न ही उद्देश्य शैय्या-त्याग का|
जलहीन नेत्र भी
रिक्त ही रहे
स्वप्नाभाव में|
अनजाने में भी
नहीं कर पा रहे हैं साहस
रिक्तता को भर पाने की|

यदि कुछ नहीं है रिक्त
तो वह है
‘कन्धा’
भविष्य और वर्तमान के
असंख्य बोझों से दबा हुआ कन्धा|
निज-जीवनोन्नति, परिजनोपासना,
समष्टिरीतिपालन के
त्रिचक्र में घूर्णित कन्धा|
कच्छपास्थि-निर्मित यह कन्धा
रिक्त होकर भी,
कभी भी नहीं होता रिक्त,
जब तक कि
रिक्त न हो जाए रक्त धमनियों से,
और देह प्राण से|
अपने कन्धे पर ग्लोब
नहीं उठाए मात्र एटलस ने ही|
प्रति-एक यहाँ
अपनी छोटी-छोटी धरती
अपने-अपने कन्धे पर लिए
घूम रहा/ही है|


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